बुझी है आग मगर इस क़दर ज़ियादा नहीं
बुझी है आग मगर इस क़दर ज़ियादा नहीं
दोबारा मिलने का इम्कान है इरादा नहीं
किया है वक़्त ने यूँ तार तार पैराहन
बरहनगी के सिवा जिस्म पर लबादा नहीं
तिरा ख़याल है तन्हाइयाँ हैं और मैं हूँ
मिरे नसीब में अब वस्ल का इआदा नहीं
मिला भी वो तो कहाँ उस का नाम लिक्खेंगे
किताब-ए-ज़ीस्त का कोई वरक़ भी सादा नहीं
न ज़ात में कोई मंज़िल न काएनात में है
सफ़र करूँ तो कहाँ कोई मेरा जादा नहीं
हवा के साथ ही शायद बदल गई दुनिया
कि जाम जाम नहीं और बादा बादा नहीं
ख़ुद अपने साए में ही बैठना पड़ा 'नासिर'
कोई शजर मिरे रस्ते में ईस्तादा नहीं
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