तुझे पछाड़ न दें रौशनी में तेरे रफ़ीक़
दया बुझे न बुझे तो भी फूँक मार तो ले
Mir Taqi Mir
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Allama Iqbal
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रब्त भी तोड़ा बनी नित की तलब का बेस भी
कुछ गुरेज़ाँ भी रहे हम ख़ुद से
दो एक साल ही इक से सराही जाती है
नैन नशे की चढ़ती नुमू पर
खिले धान खिलखिला कर पड़े नद्दियों में नाके
छत्तीस साल का भी सन्यास छीन कर
दिल पे थी सब्त जो तहरीर मिटाई न गई
इक ख़ित्ता-ए-ख़ूँ में कहीं दरिया के किनारे
तुझ से बिछड़े गाँव छूटा शहर में आ कर बसे
अख़रोट खाएँ तापें अँगेठी पे आग आ
उम्रों के बुझते मामूरे में