क़ाएम है आबरू तो ग़नीमत यही समझ
मैले से हैं जो कपड़े फटा सा जो बूट है
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ज़िद न कर मत समय मिलन का उजाड़
हसरत-ए-अहद-ए-वफ़ा बाक़ी है
कुछ गुरेज़ाँ भी रहे हम ख़ुद से
पुस्तकों में प्रानों में अर्ज़ों में आसमानों में
जब कि तुझ बिन नहीं मौजूद कोई
तुझे पछाड़ न दें रौशनी में तेरे रफ़ीक़
शाह-बलूत के ऊपर देख
धुन नहीं कोई मुद्दआ' कैसा
जल भी मिलन के कष्ट का थल भी अमीन था
खड़ा जूड़ा गुँधी बालों की चोटी
पास भी रह कर दूर है तो
फिर मुझे मिल नदी किनारे कहीं