फिर यूँ हुआ कि मुझ से वो यूँही बिछड़ गया
फिर यूँ हुआ कि ज़ीस्त के दिन यूँही कट गए
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जल भी मिलन के कष्ट का थल भी अमीन था
कह दे मन की बात तो गोरी काहे को शरमाती है
बेकल है मुख निगाह में बोसों की प्यास है
क़यास बन-बास को मुआ'नी दे
दिल से हुसूल-ए-ज़र के सभी ज़ोम हट गए
नस नस में नशा प्यार का मामूर हुआ है
तुझे पछाड़ न दें रौशनी में तेरे रफ़ीक़
साँस में साजना हवा की तरह
इक ख़ित्ता-ए-ख़ूँ में कहीं दरिया के किनारे
खड़ा जूड़ा गुँधी बालों की चोटी
तू दर्द-ए-ताज़ा के उनवान की महूरत है