खिले धान खिलखिला कर पड़े नद्दियों में नाके
घनी ख़ुशबुओं से महके मिरे देस के इलाक़े
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तुझे पछाड़ न दें रौशनी में तेरे रफ़ीक़
तो शराफ़तों का मक़ाम है तो सदाक़तों का दवाम है
दो एक साल ही इक से सराही जाती है
हम वो लोग हैं जो चाहत में
कह दे मन की बात तो गोरी काहे को शरमाती है
अख़रोट खाएँ तापें अँगेठी पे आग आ
तू दर्द-ए-ताज़ा के उनवान की महूरत है
दिल पे थी सब्त जो तहरीर मिटाई न गई
बेकल है मुख निगाह में बोसों की प्यास है
लोग थे क्या जो अज़लों से मुश्ताक़ हुए
मजमा' नहीं मुजल्ला है अशआ'र की जगह
जल भी मिलन के कष्ट का थल भी अमीन था