छत्तीस साल का भी सन्यास छीन कर
छत्तीस साल का भी सन्यास छीन कर
ये कौन ले गया मिरा बन-बास छीन कर
ऐ शाह-ए-कर्बला मिरी इमदाद को अब आ
ख़ुश है ग़नीम मुझ से मिरी प्यास छीन कर
साया न हो तो धूप जलाती है जिस्म को
तुम क्या करोगे धरती से आकास छीन कर
जीने की जो उमंग थी वो भी नहीं रही
बे-आस कर गया कोई हर आस छीन कर
तुम ने बुझाई बजती हुई बंसियों की कूक
मुझ से मिरे वजूद के तट तास छीन कर
कुछ तो बता मैं तेरा गुनहगार कब हुआ
क्यूँ आत्मा को भ्रष्ट किया मास छीन कर
मातम-कुनाँ हैं सारे असातीरी वाक़िए
तन्हा क़लम को कर दिया क़िर्तास छीन कर
रावण ने फिर जुदा किया सीता को राम से
फिर कल्पना बुझाई गई क़यास छीन कर
संजोग जुग जनम के हुए क़त्अ अलविदा'अ
बन को जलाया आग ने बू बास छीन कर
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