जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे
जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे
मेरे हक़ में भी कुछ सुना ही दे
इश्क़ में हम नहीं ज़ियादा तलब
जो तिरा नाज़-ए-कम-निगाही दे
तू ने तारों से शब की माँग भरी
मुझ को इक अश्क-ए-सुब्ह-गाही दे
तू ने बंजर ज़मीं को फूल दिए
मुझ को इक ज़ख़्म-ए-दिल-कुशा ही दे
बस्तियों को दिए हैं तू ने चराग़
दश्त-ए-दिल को भी कोई राही दे
उम्र भर की नवा-गरी का सिला
ऐ ख़ुदा कोई हम-नवा ही दे
ज़र्द-रू हैं वरक़ ख़यालों के
ऐ शब-ए-हिज्र कुछ स्याही दे
गर मजाल-ए-सुख़न नहीं 'नासिर'
लब-ए-ख़ामोश से गवाही दे
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