न काम आई मिरे कुछ मिरी शराफ़त भी
न काम आई मिरे कुछ मिरी शराफ़त भी
मिरे ख़िलाफ़ हुई उस के साथ ख़िल्क़त भी
वो शख़्स यूँ था कि जैसे धुला-धुलाया हुआ
थी ख़त्म उस पे हर इक तरह की नफ़ासत भी
वो जामा-ज़ेब था इतना कि तकते ही रहिए
ये दिल तो चाहता था मुस्तक़िल रफ़ाक़त भी
बिला-सबब न था उस में वफ़ूर-ए-ख़ुद-बीनी
ग़ुरूर-ए-हुस्न के हम-राह थी नज़ाकत भी
था उस का चेहरा-ए-ज़ेबा कि माह-पारा कोई
सुकून-बख़्श थी उस की मुझे तमाज़त भी
बरत न सकता था खुल कर वो इल्तिफ़ात मगर
थी उस की चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ में मुरव्वत भी
मैं उस के सामने गुम-सुम रहा सुख़न-बस्ता
न कर सका कभी अर्ज़-ए-हुनर की जुरअत भी
मैं कार-गाह-ए-जहाँ में अज़ल से हूँ तन्हा
न रास आई मुझे महवशों की क़ुर्बत भी
हुजूम-ए-शौक़ में यूँ भी हुआ कि मैं 'नासिर'
हवास गुम किए भूले रहा ज़ेहानत भी
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