क्या ख़बर है न मिले फिर कोई शीशा ऐसा
क्या ख़बर है न मिले फिर कोई शीशा ऐसा
ख़ुद को छूते हुए डरता हूँ शिकस्ता ऐसा
सब्ज़ा-ए-लम्स पे बढ़ता हुआ लम्हा लम्हा
सुस्त-रौ शाला-ए-तूफ़ान-ए-तमन्ना ऐसा
अब न दस्तक में सदा है न है ज़ंजीर में शोर
बंद अब तक न हुआ था दर-ए-तौबा ऐसा
साँस के साथ लपकता है तह-ए-मौज-ए-ख़याल
किस ने बोया था मिरे जिस्म में शोला ऐसा
सर से टपका जो शजर के तो ज़मीं भी न मिली
अब के इक बर्ग-ए-जवाँ शाख़ से टूटा ऐसा
अक्स को नक़्श तो जज़्बे को करूँ पारा-ए-रंग
कल के आईने से झाँकेगा न चेहरा ऐसा
अब तो ज़ंजीर-ए-तअल्लुक़ है न वो रिश्ता-ए-दर्द
मैं वो ख़ुश-बख़्त कि पाया है ज़माना ऐसा
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