बहुत क़रीब है पत-झड़ की रुत पलक न उठा
बहुत क़रीब है पत-झड़ की रुत पलक न उठा
ज़मीं से अक्स उठा धूप की चमक न उठा
ग़िलाफ़-ए-संग में लिपटा हुआ है शहर का शहर
चली हवा तो ज़मीं से ग़ुबार तक न उठा
क़दम क़दम पे ये डर था कि घात में है कोई
यहाँ तो पा-ए-तफ़क्कुर में थी झिजक न उठा
फिर अपना अपना कफ़न ले के चल दिए सब लोग
किसी से बार-ए-ग़म-ए-मर्ग-ए-मुश्तरक न उठा
मैं चोब-ए-ग़म था कि पहरों सुलग सुलग के जला
कभी जो शोला उठा भी तो यक-ब-यक न उठा
शिगाफ़-ए-सर को वजूद-ए-हवा-ए-शोर बहुत
ये शहर-ए-संग है याँ तोहमत-ए-नमक न उठा
बहुत ज़मीं से उठाया उठी न परछाईं
गिरा था अक्स कुछ ऐसा कि आज तक न उठा
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