मिस्ल-ए-सहरा है रिफ़ाक़त का चमन भी अब के
मिस्ल-ए-सहरा है रिफ़ाक़त का चमन भी अब के
जल बुझा अपने ही शो'लों में बदन भी अब के
ख़ार-ओ-ख़स हूँ तो शरर-ख़ेज़ियाँ देखूँ फिर से
आँख ले आई है इक ऐसी किरन भी अब के
हम तो वो फूल जो शाख़ों पे ये सोचें पहरों
क्यूँ सबा भूल गई अपना चलन भी अब के
मंज़िलों तक नज़र आता है शिकस्तों का ग़ुबार
साथ देती नहीं ऐसे में थकन भी अब के
मुंसलिक एक ही रिश्ते में न हो जाए कहीं
तिरे माथे तिरे बिस्तर की शिकन भी अब के
बे-गुनाही के लिबादे को उतारो भी 'नसीर'
रास आ जाए अगर जुर्म-ए-सुख़न भी अब के
(599) Peoples Rate This