तारीख़ टस्वे बहाएगी
तुम सर-ए-बाम आ कर
उठाया हुआ हाथ अपना हिला कर
चमकदार आँखों से अपनी
मुझे रुख़्सती का अगर इज़्न देतीं
तो मैं दुश्मनों के लिए
मौत बन कर निकलता
तुम्हारे फ़क़त इक इशारे से
कुश्तों के पुश्ते लगाता चला जाता
तुम देखतीं किस तरह मैं
ज़माने की सरहद ज़रा देर में पार करता
हर इक सम्त से वार करता
मोहब्बत की तारीख़ तब्दील करता
नई रज़्म-ए-बोतीक़ा तश्कील देता
मैं लश्कर का सब से बहादुर सिपाही था
मेरे लिए एक आँसू बहुत था
मगर तुम ने अश्कों की बरसात कर के
मुझे इस क़दर ग़म-ज़दा कर दिया है
कि लगता है ये मअरका हार जाऊँगा मैं
लौट कर अब न आऊँगा मैं.....!
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