लज़्ज़त-ए-हिज्र ने तड़पाया बहुत रुस्वा किया
लज़्ज़त-ए-हिज्र ने तड़पाया बहुत रुस्वा किया
तोड़ कर फेंका मिरे ज़ब्त को गुम-गश्ता किया
आँख से टूट के बरसा मिरे ख़्वाबों का लहू
दिल की दहलीज़ पे तन्हाई ने जब सज्दा किया
मैं वहाँ रह गया देखा मुझे लोगों ने यहाँ
हाए तक़्सीम मुझे इश्क़ ने ये कैसा किया
आगही बख़्श के तरतीब दिया पहले मुझे
इश्क़ ने रूह को इस जिस्म से फिर चलता किया
ख़ामुशी को न समझ ले वो कहीं मेरी शिकस्त
हश्र जी-जान में जाँ-लेवा सा ख़ुद बरपा किया
ख़ुद से लड़ते हुए ले आया हूँ मैं ख़ुद को वहाँ
मेरे साए ने जुदा मुझ से जहाँ रस्ता किया
हो न जाऊँ कहीं गुम-गश्ता न मिट जाऊँ कहीं
बे-सबब दिल की तबाही का मियाँ चर्चा किया
ख़ौफ़ था दश्त उतर जाए न मुझ में तब ही
चश्म-ए-तिश्ना का मकीं बहता हुआ दरिया किया
ख़ुद से बिछड़ा तो खुला राज़ ये दिल पर मेरे
अपनी पहचान हो क़िस्मत ने मुझे तन्हा किया
दिल पे क्या मौज-ए-'नसीमी' ने मिरे बोसा धरा
दिल की वहशत पे तकल्लुम ने मिरे क़ब्ज़ा किया
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