ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है
तुम्हारी ज़ुल्फ़ दिल ख़ुद माँग लेगी
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नाला-ए-दिल कमाल का निकला
हिज्र में जब ख़याल-ए-यार आया
सीधा सच्चा तुम्हें ऐ जान-ए-जहाँ जाने कौन
दे दें अभी करे जो कोई ख़ूब-रू पसंद
यूँही गर अदू की ग़ुलामी करेंगे
दिल की शामत आई जा कर फँस गया
बेताब हैं किसी की निगाहें नक़ाब में
तसल्लियाँ भी नहीं उन की छेड़ से ख़ाली
जहाँ में अभी यूँ तो क्या क्या न होगा
जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है
जो पूछा सब्र-ए-हिज्र-ए-ग़ैर में क्या हो नहीं सकता
उन के पैकान पे पैकान चले आते हैं