तसल्लियाँ भी नहीं उन की छेड़ से ख़ाली
रुला के छोड़ते हैं वो हँसा हँसा के मुझे
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हम यार की ग़ैरों पे नज़र देख रहे हैं
दे दें अभी करे जो कोई ख़ूब-रू पसंद
हिज्र में जब ख़याल-ए-यार आया
अपनी महफ़िल में मुझे देख के कहता है वो बुत
जहाँ में अभी यूँ तो क्या क्या न होगा
नाला-ए-दिल कमाल का निकला
मुँह मेरी तरफ़ है तो नज़र ग़ैर की जानिब
मेरे तड़पने ने तमाशा किया
ग़ैर के घर हैं वो मेहमान बड़ी मुश्किल है
उन के पैकान पे पैकान चले आते हैं
जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है
न मानी उस ने एक भी दिल की