मुँह मेरी तरफ़ है तो नज़र ग़ैर की जानिब
करते हैं किधर बात किधर देख रहे हैं
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ज़िक्र-ए-दुश्मन है नागवार किसे
जो पूछा सब्र-ए-हिज्र-ए-ग़ैर में क्या हो नहीं सकता
शब-ए-फ़ुर्क़त क़ज़ा नहीं आती
ज़िक्र-ए-ईफ़ा कुछ नहीं वादा ही वादा हम से है
रखना ख़म-ए-गेसू में या दिल को रिहा करना
दे दें अभी करे जो कोई ख़ूब-रू पसंद
ग़ैर के घर हैं वो मेहमान बड़ी मुश्किल है
सब लुत्फ़ है ख़ाक-ए-ज़िंदगी का
उन के पैकान पे पैकान चले आते हैं
जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है