दिल की शामत आई जा कर फँस गया
यार के गेसू-ए-पुर-ख़म क्या करें
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होंगे दिल-ओ-जिगर में निशाँ देख लीजिए
बहार आई है फिर वहशत के सामाँ होते जाते हैं
हम यार की ग़ैरों पे नज़र देख रहे हैं
जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है
दे दें अभी करे जो कोई ख़ूब-रू पसंद
न मानी उस ने एक भी दिल की
ज़िक्र-ए-ईफ़ा कुछ नहीं वादा ही वादा हम से है
जो पूछा सब्र-ए-हिज्र-ए-ग़ैर में क्या हो नहीं सकता
आप वो सब की जान लेते हैं
अपनी महफ़िल में मुझे देख के कहता है वो बुत
सीधा सच्चा तुम्हें ऐ जान-ए-जहाँ जाने कौन
जब किसी को ख़फ़ा करे कोई