चराग़-ए-शाम-ए-ग़रीबी था में ज़माने में
किसी ने आ के न ठंडा किया जला के मुझे
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सीधा सच्चा तुम्हें ऐ जान-ए-जहाँ जाने कौन
ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है
बेताब हैं किसी की निगाहें नक़ाब में
मेरे तड़पने ने तमाशा किया
जहाँ में अभी यूँ तो क्या क्या न होगा
मुँह मेरी तरफ़ है तो नज़र ग़ैर की जानिब
शब-ए-फ़ुर्क़त क़ज़ा नहीं आती
तसल्लियाँ भी नहीं उन की छेड़ से ख़ाली
हम यार की ग़ैरों पे नज़र देख रहे हैं
आप वो सब की जान लेते हैं
ज़िक्र-ए-दुश्मन है नागवार किसे
जिधर देख तुम्हारी बज़्म में अग़्यार बैठे हैं