अपनी महफ़िल में मुझे देख के कहता है वो बुत
क्यूँ मिरे घर में मुसलमान चले आते हैं
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हम यार की ग़ैरों पे नज़र देख रहे हैं
क्या ख़ाक कहूँ मतलब-ए-दिलदार के आगे
यूँही गर अदू की ग़ुलामी करेंगे
जो पूछा सब्र-ए-हिज्र-ए-ग़ैर में क्या हो नहीं सकता
बहार आई है फिर वहशत के सामाँ होते जाते हैं
नाला-ए-दिल कमाल का निकला
सीधा सच्चा तुम्हें ऐ जान-ए-जहाँ जाने कौन
जहाँ में अभी यूँ तो क्या क्या न होगा
शब-ए-फ़ुर्क़त क़ज़ा नहीं आती
दे दें अभी करे जो कोई ख़ूब-रू पसंद
तुम्हारी तेग़ से आँखें लगी हैं मरने वालों की
ग़ैर के घर बन के डाली जाएगी