सुना है फूल झड़े थे जहाँ तिरे लब से
वहाँ बहार उतरती है रोज़ शाम के साथ
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इम्तिहाँ लेने चला है मिरी बीनाई का
नमी थी आँख में लेकिन इक ए'तिमाद भी था
तिरे ख़याल, तिरे ख़्वाब, तेरे नाम के साथ
सूरत-ए-हाल-ए-दिल बदलता है
तिरे ख़याल से रौशन है सर-ज़मीन-ए-सुख़न
अपने पिंदार से घट कर नहीं क़ाएम रहता
ग़ुबार-ए-शब ज़रा इस अम्र की ख़बर करना
इक हाथ दुआओं का असर काट रहा है
कहीं गिरफ़्त नहीं कोई इस्तिआरा नहीं
रक़्स-ए-ज़मीं को गर्दिश-ए-अफ़्लाक चाहिए