जो महरम-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ होते हैं
वो अपनी लताफ़त को कहाँ खोते हैं
हँसना हो अगर हँसते हैं ग़ुंचे की तरह
रोते हैं तो शबनम की तरह रोते हैं
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Habib Jalib
Wasi Shah
Rahat Indori
Allama Iqbal
Gulzar
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1406) Peoples Rate This
सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
नारवा है किसी की हमराही
गुनाहों से हमें रग़बत न थी मगर या रब
कौन सुलगते आँसू रोके आग के टुकड़े कौन चबाए
तू मिरी ज़िंदगी का परतव है
चाँदनी रात की ख़मोशी में
ये सोच कर भी हँस न सके हम शिकस्ता-दिल
आँखों में सहर झलक रही है गोया
माहौल से ज़ुल्मत की रिदा हटती है
डूब कर पार उतर गए हैं हम
एक क्लर्क लड़की