सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
डूबता हूँ कभी उभरता हूँ
देख कर तेरी मध-भरी आँखें
मैं ख़ुद अपनी तलाश करता हूँ
Faiz Ahmad Faiz
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शाम-ए-वादा का ढल गया साया
गुनाहों से हमें रग़बत न थी मगर या रब
एक क्लर्क लड़की
डूब कर पार उतर गए हैं हम
साक़िया साक़िया सँभाल उसे
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
नारवा है किसी की हमराही
माहौल से ज़ुल्मत की रिदा हटती है
किसी के जौर-ओ-सितम का तो इक बहाना था
मेरी ग़मगीन ओ ज़र्द सूरत को
रौनक़ बढ़ेगी रू-ए-नशात-ए-जमाल की
ले के दिल दर्द पाएदार दिया