साक़िया साक़िया सँभाल उसे
फेंक देवे न कोई जाल उसे
गर्दिश-ए-रोज़गार आई है
एक दो साग़रों से टाल उसे
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गुनाहों से हमें रग़बत न थी मगर या रब
चोट खा कर भी मुस्कुराता हूँ
ता हद्द-ए-नज़र दमक रहे हैं ज़र्रे
बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
कैसे बे-सोज़ लोग हो यारो
एक आम सी लड़की
हयात है कि मुसलसल सफ़र का आलम है
ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा