रूह की आँच में उबाला है
मुद्दतों ख़ून-ए-दिल से पाला है
अपने शेरों में जब कहीं मैं ने
ज़िंदगी की तड़प को ढाला है
Allama Iqbal
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ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
मेरी फ़िक्र-ओ-नज़र के चेहरे पर
शो'लों के भँवर मचल रहे हों जैसे
मैं तो क्या मुझ को देखने वाला
एक धोका है ये शब-रंग सवेरा क्या है
चोट खा कर भी मुस्कुराता हूँ
अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
कश्मकश
राख
सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
डस गई तेरी काएनात मुझे