मेरी ग़मगीन ओ ज़र्द सूरत को
देख लेते हैं जब कभी अहबाब
मुझ से तनज़न सवाल करते हैं
'शाद'-साहिब पियोगे अब भी शराब
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ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा
बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
आँखों में सहर झलक रही है गोया
दुनिया है इरम से भी हसीं देख ज़रा
शो'लों के भँवर मचल रहे हों जैसे
किसी के जौर-ओ-सितम का तो इक बहाना था
अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
ग़म की रातों के ख़्वाब लाया हूँ
रौनक़ बढ़ेगी रू-ए-नशात-ए-जमाल की
रात की पुर-सुकूत ज़ुल्मत में
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे