कैफ़ पर भी है कैफ़ का आलम
आज मस्ती भी महव-ए-मस्ती है
बात करता हूँ फूल झड़ते हैं
आँख उठाता हूँ मय बरसती है
Faiz Ahmad Faiz
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रौनक़ बढ़ेगी रू-ए-नशात-ए-जमाल की
तू मिरी ज़िंदगी का परतव है
चाँदनी रात की ख़मोशी में
डस गई तेरी काएनात मुझे
ए'तिराफ़
नारवा है किसी की हमराही
महफ़िल उन की साक़ी उन का
राख
रात की पुर-सुकूत ज़ुल्मत में
माहौल से ज़ुल्मत की रिदा हटती है
चोट खा कर भी मुस्कुराता हूँ
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था