अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
हर ज़र्रे में सौ रौशनियाँ घुलती हैं
जब सुब्ह को वो नींद से बोझल आँखें
खिलती हुई कलियों की तरह खुलती हैं
Mohsin Naqvi
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Rahat Indori
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डस गई तेरी काएनात मुझे
माहौल से ज़ुल्मत की रिदा हटती है
दुनिया है इरम से भी हसीं देख ज़रा
बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
मस्लहत
जब अहल-ए-गुलिस्ताँ को शुऊ'र आएगा
लाख काटो रगें सदाक़त की
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
महसूस भी हो जाए तो होता नहीं बयाँ
इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
एक क्लर्क लड़की