आँखों में सहर झलक रही है गोया
होंटों से शफ़क़ ढलक रही है गोया
यूँ फबके हुए जिस्म में रक़सा है शबाब
पैमाने से मय छलक रही है गोया
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सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
दुनिया है इरम से भी हसीं देख ज़रा
जब अहल-ए-गुलिस्ताँ को शुऊ'र आएगा
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
एक धोका है ये शब-रंग सवेरा क्या है
जो महरम-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ होते हैं
शाम-ए-वादा का ढल गया साया
इंतिक़ाम-ए-ग़म-ओ-अलम लेंगे
लाख काटो रगें सदाक़त की
अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
राख
कश्मकश