ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
मुद्दतों मौत ने भी तरसाया
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रात की पुर-सुकूत ज़ुल्मत में
ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा
एक धोका है ये शब-रंग सवेरा क्या है
जब अहल-ए-गुलिस्ताँ को शुऊ'र आएगा
साक़िया साक़िया सँभाल उसे
मेरी ग़मगीन ओ ज़र्द सूरत को
चाँदनी रात की ख़मोशी में
बिजलियों की हँसी उड़ाने को
नारवा है किसी की हमराही
बीते हुए लम्हों का इशारा ले कर
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
तिरा तज़्किरा सू-ब-सू क्यूँ करें हम