किसी के जौर-ओ-सितम का तो इक बहाना था
हमारे दिल को बहर-हाल टूट जाना था
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मैं तो क्या मुझ को देखने वाला
जो महरम-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ होते हैं
तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
शो'लों के भँवर मचल रहे हों जैसे
अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
चेहरे की तब-ओ-ताब में कौंद लपके
डूब कर पार उतर गए हैं हम
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
ले के दिल दर्द पाएदार दिया
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
कैसे बे-सोज़ लोग हो यारो