ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा
जिसे नफ़रत है उस के आदमी से
Faiz Ahmad Faiz
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Anwar Masood
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चोट खा कर भी मुस्कुराता हूँ
लाख काटो रगें सदाक़त की
इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
एक धोका है ये शब-रंग सवेरा क्या है
हयात है कि मुसलसल सफ़र का आलम है
तू मिरी ज़िंदगी का परतव है
डूब कर पार उतर गए हैं हम
एक आम सी लड़की
दुनिया है इरम से भी हसीं देख ज़रा
बिजलियों की हँसी उड़ाने को