इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
Javed Akhtar
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Habib Jalib
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Gulzar
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इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
ए'तिराफ़
तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
हयात है कि मुसलसल सफ़र का आलम है
फिर इस दुनिया से उम्मीद-ए-वफ़ा है
एहसास-ए-नशात की कमी देखोगे
ग़म की रातों के ख़्वाब लाया हूँ
डस गई तेरी काएनात मुझे
एक क्लर्क लड़की
बिजलियों की हँसी उड़ाने को
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे