अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
इश्क़ ने दिल में रौशनी की है
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शो'लों के भँवर मचल रहे हों जैसे
हयात है कि मुसलसल सफ़र का आलम है
मैं तो क्या मुझ को देखने वाला
गुनाहों से हमें रग़बत न थी मगर या रब
इंतिक़ाम-ए-ग़म-ओ-अलम लेंगे
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
तिरा तज़्किरा सू-ब-सू क्यूँ करें हम
तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा
तू मिरी ज़िंदगी का परतव है
सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
चेहरे की तब-ओ-ताब में कौंद लपके