ऐ आबला-पा और भी रफ़्तार ज़रा तेज़
ऐ आबला-पा और भी रफ़्तार ज़रा तेज़
इस दश्त-ए-पुर-असरार में चलती है हवा तेज़
आसार तो कुछ ऐसे ख़तरनाक नहीं थे
क्या जानिए किस तरह ये तूफ़ान हुआ तेज़
कुछ अब्र-ओ-हवा बर्क़-ओ-शरर से नहीं मतलब
इस दौर-ए-पुर-आशोब में हर शय है सिवा तेज़
क्या मौज-ए-सुख़न क्या नफ़स-ए-साएक़ा-परवर
बस ये है कि हो जाती है आवाज़-ए-अना तेज़
उठते हैं सर-ए-राह जहाँ ज़र्द बगूले
होता है वहीं रक़्स-ए-जुनूँ और सिवा तेज़
शायद कि रग-ए-जाँ में लहू ज़िंदा है अब तक
अक्सर दर-ए-ज़िंदाँ से उभरती है सदा तेज़
तक़दीर-ए-मोहब्बत भी बदल जाएगी 'नामी'
उन हाथों पे हो जाए ज़रा रंग-ए-हिना तेज़
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