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इश्क़ को आँख में जलते देखा - नजमा शाहीन खोसा कविता - Darsaal

इश्क़ को आँख में जलते देखा

इश्क़ को आँख में जलते देखा

फूल को आग में खिलते देखा

इश्क़ के राज़ न पूछो साहब

इश्क़ को दार पे चढ़ते देखा

इश्क़ के दाम भी लग जाते हैं

मिस्र में उस को बिकते देखा

इश्क़ है वाजिब उस को हम ने

जिस्म और जाँ में उतरते देखा

उस को हवस का नाम न देना

लौह पे उस को लिखते देखा

अर्श भी हैरत से तकता था

दश्त में उस को पलते देखा

इश्क़ अनोखा मंज़र जिस में

राज़ को ख़्वाब में ढलते देखा

हिज्र का ज़ख़्म तो ज़ख़्म है ऐसा

बख़िया-गरों से भी खुलते देखा

इश्क़ वो बाग़ है जिस को हम ने

हिज्र की रुत में महकते देखा

ग़म क्या हिज्र और विसाल का उस को

इश्क़ में जिस को भटकते देखा

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