ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना
उखड़ गए तो क़दम फिर कहाँ सँभलते हैं
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किस ने वफ़ा के नाम पे धोका दिया मुझे
हर-चंद जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ
ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए
'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन
आसमाँ सूरज सितारे बहर-ओ-बर किस के लिए
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया
थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था
किरन तो घर के अंदर आ गई थी
नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा
मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले