वही रिश्ते वही नाते वही ग़म
बदन से रूह तक उकता गई थी
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ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए
अंधे बदन में ये सहर-आसार कौन है
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
बदन से जाँ निकलना चाहती है
किस ने वफ़ा के नाम पे धोका दिया मुझे
रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे
इक रंज-ए-उम्र दे के चला है किधर मुझे
शब भली थी न दिन बुरा था कोई
'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन
दिए आँखों की सूरत बुझ चुके हैं
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था