'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन
तिरे ग़म से तो सारी उम्र का रिश्ता निकल आया
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रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे
मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले
ख़्वाब-गाह
तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
पैरहन उड़ जाएगा रंग-ए-क़बा रह जाएगा
कि ख़ुद इंसान ढलता जा रहा है
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है
निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा
इक रंज-ए-उम्र दे के चला है किधर मुझे