मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले
न आसमाँ का रहूँ मैं न आसमाँ मेरा
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हम अपने घर से ब-रंग-ए-हवा निकलते हैं
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
किरन तो घर के अंदर आ गई थी
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया
ख़्वाब-गाह
शब भली थी न दिन बुरा था कोई
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
एक मेरी जाँ में और इक लहर सहराओं में थी
हम तो समझे थे कि चारों दर मुक़फ़्फ़ल हो चुके
थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था