ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था
हम से इक रोज़ तिरा ग़म भी बिछड़ जाना था
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इश्क़-आबाद फ़क़ीरों की अदा रखते हैं
'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
हर-चंद जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया
अंधे बदन में ये सहर-आसार कौन है
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
कुछ इस के सिवा ख़्वाहिश-ए-सादा नहीं रखते