इस दाएरा-ए-रौशनी-ओ-रंग से आगे
क्या जानिए किस हाल में बस्ती के मकीं हैं
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नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
इक रंज-ए-उम्र दे के चला है किधर मुझे
दिए आँखों की सूरत बुझ चुके हैं
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
किरन तो घर के अंदर आ गई थी
ख़्वाब-गाह
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म
एक मेरी जाँ में और इक लहर सहराओं में थी
ऐ मह-ए-हिज्र क्या कहें किसी थकन सफ़र में थी
इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
वही रटे हुए जुमले उगल रहा हूँ अभी