इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'
आज का काम भी हम कल पे उठा रखते हैं
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अंधे बदन में ये सहर-आसार कौन है
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है
ज़र्द पत्तों को दरख़्तों से जुदा होना ही था
कुछ इस के सिवा ख़्वाहिश-ए-सादा नहीं रखते
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
शब भली थी न दिन बुरा था कोई
इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया
दिल को हर गाम पे धड़के से लगे रहते हैं
पैरहन उड़ जाएगा रंग-ए-क़बा रह जाएगा
निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा