दिए आँखों की सूरत बुझ चुके हैं
वस्ल के लम्हों की गिनती करने वाले हाथ हिद्दत से तही हैं
मौज में आए हुए दरिया में कश्ती कौन डाले
मांझियों के गीत लहरों की तरह साहिल की भीगी रेत पर बिखरे हुए हैं
अब किसी बुढ़िया की गठरी कोई अहल-ए-दिल उठा कर बस्तियों का रुख़ नहीं करता
किसी हम-साए से अहवाल-ए-दिल मालूम करना कार-ए-बे-उजरत हुआ है
नफ़्सी नफ़्सी की हवाएँ ज़ात के तारीक जंगल में बड़ी आसूदगी से चल रही हैं
ख़ाना-ए-दिल में वफ़ाओं के दिए आँखों की सूरत बुझ चुके हैं
भीड़ में रस्ता नहीं मिलता चराग़ों की क़तारों में चराग़-ए-गुल नहीं मिलता कि जिस पर रौशनी का गुल खिला हो
वस्ल के लम्हों में रंग-ए-नूर भरने वाली आँखें अपनी नरमी से तही हैं
वस्ल के लम्हों में रंग-ए-इश्क़ भरने वाली पोरें अपनी गर्मी से तही हैं
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