यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया
कि उस ने रब्त कोई दरमियाँ न रहने दिया
मिरी नज़र ही समुंदर की आख़िरी हद थी
मिरी थकन ने मुझे पर-फ़िशाँ न रहने दिया
किसी ने कश्ती उतारी तो थी समुंदर में
मगर हवा ने कोई बादबाँ न रहने दिया
कोई तो बर्फ़-ब-कफ़ दश्त की तरफ़ आया
किसी ने बहर में पानी रवाँ न रहने दिया
हर एक लफ़्ज़ में यूँ कर दिया लहू शामिल
कि दास्ताँ को फ़क़त दास्ताँ न रहने दिया
'नजीब' किस तरह जागें कि इन अंधेरों ने
सहर का तारा सर-ए-आसमाँ न रहने दिया
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