शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
हम लोग रौशनी के तलबगार कब हुए
ख़ुशबू की घात में हैं शिकारी हवाओं के
झोंके मगर किसी से गिरफ़्तार कब हुए
ताबीर की रुतों ने बदन ज़र्द कर दिए
फिर भी ये लोग ख़्वाब से बेदार कब हुए
ताले लगा लिए हैं ख़ुद अपनी ज़बान पर
क्या बात है तुम इतने समझदार कब हुए
ये अहद अपनी रूह में अहद-ए-फ़िराक़ है
हम मतला-ए-सुख़न पे नुमूदार कब हुए
ख़िलअत वसूल करते हुए सर उठा लिया
रुस्वा 'नजीब' हम सर-ए-दरबार कब हुए
(440) Peoples Rate This