नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
पार उतरता था मगर तुझ पे भरोसा भी न था
ज़िंदगी हाथ न दे पाई मिरे हाथों में
साथ जाना भी न था हाथ छुड़ाना भी न था
जिन पे इक उम्र चला था उन्ही रस्तों पे कहीं
वापस आया तो मिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी न था
ग़र्क़-ए-दुनिया के लिए दस्त-ए-दुआ क्या उठते
कोई इस घर में दुआ माँगने वाला भी न था
हर कोई मेरा ख़रीदार नज़र आया मुझे
चाक पर मैं ने अभी ख़ुद को उभारा भी न था
फैलता जाता है हर साँस रग ओ पय में 'नजीब'
एक सहरा जो अभी राह में आया भी न था
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