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ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था - नजीब अहमद कविता - Darsaal

ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था

ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था

हम से इक रोज़ तिरा ग़म भी बिछड़ जाना था

कौन से काज सँवरते हैं तिरे होने से

कौन सा काम न होने से बिगड़ जाना था

बैअत-ए-इश्क़ न की बैअत-ए-शाही के लिए

क़स्र बसना थे सो मक़्तल को उजड़ जाना था

संग-रेज़ों की कमी कब थी सर-ए-राह-ए-विसाल

दिल-ए-कम-ज़र्फ़ का दामन ही सिकुड़ जाना था

और कब तक यूँही बे-गोर-ओ-कफ़न रखते उन्हें

सर्द ख़ानों में भी लाशों को अकड़ जाना था

क्या ख़बर थी ज़र-ए-एहसास के लुटते ही 'नजीब'

इक ख़ला सा दर-ओ-दीवार में पड़ जाना था

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In Hindi By Famous Poet Najeeb Ahmad. is written by Najeeb Ahmad. Complete Poem in Hindi by Najeeb Ahmad. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.