याद-दहानी
अंधी रात के आते ही
सब चुप-चाप से इक गोशे में सिमट गए
पर मैं ने अपनी कुटिया की तारीकी से जंग की ठानी
ख़ुद को इक मटकी के दिए में ढाल दिया
तब छोटे से आँगन में नन्ही-मुन्नी मस़्काती किरनों ने झूमर डाला
सब के रौशन रौशन चेहरे हँसने लगे
लेकिन सुब्ह के जागते ही
मिरी थकी थकी सी नन्ही-मुन्नी किरनों को ठोकर से उड़ाते
दूर तक फैले हुए खेत में शबनम के क़ुमक़ुमे मिटाते
रौशनी के अम्बारों में से रस्ता बनाते
जगमग जगमग सूरज के ऐवाँ की जानिब बढ़ने वालो!
मेरे अपनो
मुझ को कुटिया के एक ताक़ में रख कर भूल गए हो?
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