वापसी
मस्लहत एक सहेली मेरी
उस ने तुम्हारी सोच पे पाबंदी आएद की थी
मैं ने उस का दिल रखने को हामी भर ली थी
लेकिन मुझे अकेला पा कर
कल इक नन्हा-मुन्ना भेद भरा लम्हा
किलकारी भरता आया
उस ने जिस की उँगली थाम रखी थी
वो तो तुम थे
आँखों में शामें उतरी थीं
घनी घनी पलकों के पीछे इक नारंजी शिकवा डूब रहा था
क्या मैं इक पल को भी सोचे जाने लाएक़ नहीं रहा हूँ
चुप की लम्बी यख़-दीवारों को छूकर
तुम लौट गए हो
लेकिन अपना चंचल साथी पीछे छोड़ गए हो
और वो मेरे चार-सू फेरे खेल खेल कर
मेरा आँचल थामे थामे जाने क्या क्या पूछ पूछ कर थक ही गया है
मेरे कंधे लग कर ख़्वाबों के झूले में झूल रहा है
उस के जागने से पहले
तुम उस को लेने आ जाओ
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