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ये जो सुब्ह के बीच दीवार-ए-शब सी उठी लगती है - नाहीद विर्क कविता - Darsaal

ये जो सुब्ह के बीच दीवार-ए-शब सी उठी लगती है

ये जो सुब्ह के बीच दीवार-ए-शब सी उठी लगती है

है अक्स-ए-तहय्युर की ये दास्ताँ और सुनी लगती है

जो मैं ख़्वाहिशों में घिरी चुप भरी साअतें तकती हूँ

मुझे उन के अंदर तलक तिरी ख़्वाहिश गड़ी लगती है

तिरा विर्द करती हुई आसमाँ से उतरती हुई

कोई नूर जैसी दुआ चार-सू गूँजती लगती है

मिरे आइने में जो तस्वीर तेरी उभर आई है

ये झुटलाने से फ़ाएदा? मुझ को ये रौशनी लगती है

फ़क़त मेरे चेहरे पे ही रंग खिल के नहीं उतरे हैं

शफ़क़ शाम की मेरी आँखों से भी झाँकती लगती है

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In Hindi By Famous Poet Naheed Virk. is written by Naheed Virk. Complete Poem in Hindi by Naheed Virk. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.